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प꣢रि꣣ त्य꣡ꣳ ह꣢र्य꣣त꣡ꣳ हरिं꣢꣯ ब꣣भ्रुं꣡ पु꣢नन्ति꣣ वा꣡रे꣢ण । यो꣢ दे꣣वा꣢꣫न्विश्वाँ꣣ इ꣢꣯त्परि꣣ म꣡दे꣢न स꣣ह गच्छ꣢꣯ति ॥१६८१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

परि त्यꣳ हर्यतꣳ हरिं बभ्रुं पुनन्ति वारेण । यो देवान्विश्वाँ इत्परि मदेन सह गच्छति ॥१६८१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡रि꣢꣯ । त्यम् । ह꣣र्यत꣢म् । ह꣡रि꣢꣯म् । ब꣣भ्रु꣢म् । पु꣣नन्ति । वा꣡रे꣢꣯ण । यः । दे꣣वा꣢न् । वि꣡श्वा꣢꣯न् । इ꣣त् । प꣡रि꣢꣯ । म꣡दे꣢꣯न । स꣣ह꣢ । ग꣡च्छ꣢꣯ति ॥१६८१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1681 | (कौथोम) 8 » 2 » 8 » 3 | (रानायाणीय) 18 » 2 » 4 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीय ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५५२ क्रमाङ्क पर जीवात्मा की शुद्धि के विषय में और उत्तरार्चिक में १३२९ क्रमाङ्क पर गुरु-शिष्य के विषय में हो चुकी है। यहाँ मन की शुद्धि का विषय कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

योगाभ्यासी लोग (त्यम्) उस (हर्यतम्) चाहने योग्य, (बभ्रुम्) इन्द्रियों को विषय ग्रहण में सहायता देनेवाले, (हरिम्) ज्ञान के ग्रहण में साधनभूत मन को (वारेण) अशुद्धि-निवारक योगानुष्ठान से (परि पुनन्ति) पवित्र करते हैं, (यः) जो मन (मदेन सह) उत्साह के साथ (विश्वान् देवान् इत्) सभी इन्द्रियों में (परि गच्छति) उन-उनके विषय को ग्रहण कराने के लिए परिव्याप्त होता है, [क्योंकि मन का व्यापार न हो तो इन्द्रियां विषय को ग्रहण नहीं कर सकतीं] ॥३॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यों का मन यदि दूषित हो तो वह इन्द्रियों को कुमार्ग पर ही ले जाता है। इसलिए अध्यात्म-जीवन के लिए और परमात्मा के दर्शन के लिए उसका शोधन अत्यन्त आवश्यक है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीया ऋक् पूर्वार्चिके ५५२ क्रमाङ्के जीवात्मशोधनविषये उत्तरार्चिके च १३२९ क्रमाङ्के गुरुशिष्यविषये व्याख्याता। अत्र मनःशुद्धिविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

योगाभ्यासिनो जनाः (त्यम्) तम् (हर्यतम्) कमनीयम्, (बभ्रुम्) इन्द्रियाणां स्वस्वविषयग्राहित्वे पोषकम्, (हरिम्) ज्ञानाहरणसाधनभूतम् मनः (वारेण) अशुद्धिनिवारकेण योगाङ्गानुष्ठानेन२ (परि पुनन्ति) पवित्रयन्ति, (यः) यः हरिः यद् मनः (मदेन सह) उत्साहेन सार्धम् (विश्वान् देवान् इत्) सर्वाण्येव इन्द्रियाणि (परि गच्छति) तत्तद्विषयग्राहणाय परिव्याप्नोति, मनोव्यापाराभावे इन्द्रियाणां विषयग्रहणासमर्थत्वात् ॥३॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्याणां मनश्चेद् दूषितं तर्हि तदिन्द्रियाणि कुमार्ग एव नयति। अतोऽध्यात्मजीवनाय परमात्मदर्शनाय च तच्छोधनं नितरामपेक्ष्यते ॥३॥